Sunday, December 17, 2017

हे मेरे काव्य , मेरे प्रभु...

तेरे चरणों में तेरा ये भक्त कुछ अर्पित करना चाह रहा हैं | चाह तो रहा था कि तेरे ही अंश रुपी पद्य का प्रसाद तेरे चरणों में प्रेषित करूँ |  पर ये सुदामा रुपी भक्त अपनी चावल की गठरी रुपी कविता तुझे देने में लजा रहा हैं | तेरे भव्य वैभव के सामने, ये छप्पन भोगों की थाल जो इन सब ने चढाई हैं,  उनके आगे मेरी चावल की गठरी का क्या मोल |  इसलिए  गद्य का ही प्रसाद चढाने की हिम्मत जुटा पाया हूँ |

एक भक्त के लिए उसका भगवान सर्वव्यापी भी होता है और सर्वज्ञाता भी | काव्य और कविता के रूप में अर्धनारीश्वर के भाँति सृष्टि के आरम्भ से ही तू व्याप्त रहा हैं | जब सृष्टि का निर्माण नहीं हुआ था तब भी तू प्रणव नाद के बनकर ब्रह्माण्ड में गुंजायमान था | जंगलो में भटकते मनु वंशियों को जब ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ तब वेदो की वाणी बन कर तूने उस ज्ञान को सर्व सुलभ बनाया | आदि कवि वाल्मीकि के मुख से जब अनायास ही "मा निषाद प्रतिष्ठां" श्लोक निकला वो तेरी ही तो लीला थी, जो तूने रची थी , रामायण जैसे  महाग्रंथ की रचना के लिए |

जिस तरह से ईश्वर हर काल और हर क्षेत्र में अलग-अलग रूपों में स्तिथ रहता है , उसी तरह हर देश हर भाषा में कई रूपों में अवतार लेता रहा है | क्या इतिहास और क्या भविष्य तू तो सर्वज्ञाता हैं |  जब भी हम मनुष्यों को अपनी भूल से कुछ सिखाना चाहा तब तेरे किसी भक्त ने तुझे एक नया रूप देकर प्रस्तुत किया।कभी गीता महाभारत कभी कुरान कभी गुरु ग्रंथ साहिब , हर  रूप में तूने आकर हमें सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया | पर हम ठहरे मनुष्य जो इतिहास को हर बार भूल  जाते हैं और हर बार गलतियां दोहराते हैं |

पर  मैं जानता हूँ तू दयालु हैं , अपने भक्तों को छोड़ेगा नहीं | अवतरित होता रहेगा, नये नये रूपों में नित नये भावों के साथ | तेरे कई भक्त तेरे दिए कर्तव्य को निभाते रहेंगे | इसी आशा के साथ |

तेरा एक शरणागत