Monday, July 9, 2018

Kah Mukri Challenge

कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ  का सीधा सा अर्थ होता है कही हुई बातों से मुकर जाना. और इस बंद में होता भी यही है.  ये चार पंक्तियों का बंद होती हैं, जिसमें पहली तीन पंक्तियाँ किसी संदर्भ या वर्णन को प्रस्तुत करती हैं,  परन्तु स्पष्ट कुछ भी नहीं होता. चौथी पंक्ति दो वाक्य-भागों में विभक्त हुआ करती हैं. पहला वाक्य-भाग उस वर्णन या संदर्भ या इंगित को बूझ जाने के क्रम में अपेक्षित प्रश्न-सा होता है,  जबकि दूसरा वाक्य-भाग वर्णनकर्ता का प्रत्युत्तर होता है जो पहले वाक्य-भाग में बूझ गयी संज्ञा से एकदम से अलग हुआ करता है. यानि किसी और संज्ञा को ही उत्तर के रूप में बतलाता है. इस लिहाज से मुकरियाँ  एक तरह से अन्योक्ति हैं. (source here )

कुछ स्व-रचित कह-मुकरियाँ यहाँ प्रेषित है जो की हमारी काव्य पाठ मित्र मंडली "पढ़ने लिखने वाले" की प्रेरणा से लिखी गयी है

उसकी खुशबू , से मन डोले
नैना तरसे , तन हिचकोले
हाथ छूए तो, दिन आफताब
कौन माशूका? ना रे किताब।

जब वो आवे , मन हरशाए
ताज़ी हवा सा, घर महकाए
बचपन का वो, बड़ा त्योहार
कौन दिवाली? नहीं रविवार।

उसकी सबसे, मधुर आवाज़
जब वो बाजे, तो लागे साज़
दौड़ू पीछे, बन मतवाला
कौन वो सजनी? ना कुल्फी वाला।

गरमी में भी, ठंड दिलाए
तन मन पर, अमृत बरसाए
जा कर जहां, हो दिल मस्ती वाला
सजनी की गली? नहीं मधुशाला।