Saturday, November 19, 2011

कौन हो तुम

क्या हो तुम, कौन हो तुम
मैं ये सोचता हूँ |
क्यों सांसो की डोर हो तुम,
मैं ये सोचता हूँ ||

तुम मेरे ही तो भीतर हो,
हृद्यांगी तुम हो मेरी
फिर क्यों मृगतृष्णा से व्याकुल हो,
हर पल तुम्हे खोजता हूँ |
कहाँ ढूँढू पा जाऊं तुम्हे,
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||

तुम से ही तो पूर्ण हुआ मैं
जन्मो से जो अधुरा था,
अपने प्रेम कलश के पात्र को
तुमसे ही तो भरता हूँ |
कैसे समेट लूं अपने मैं तुम्हे
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||

मेरा जीवन बेजान सा था,
सुनसान मरुभूमि जैसा,
इस वीरानी को अब तो मैं
वीणा से झंकृत करता हूँ|
हर राग मैं कैसे पाऊँ तुम्हे
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||

3 comments:

Pulkit Verma said...

aajtak sirf suna hi tha, aj pehli baar padhi aapki koi kavita...
mast hai ekdum... :) :)

piyushtechsavy said...

Thanks Pulkit...

Harsh Mittal said...

sundar ati sundar