मैं ये सोचता हूँ |
क्यों सांसो की डोर हो तुम,
मैं ये सोचता हूँ ||
तुम मेरे ही तो भीतर हो,
हृद्यांगी तुम हो मेरी
फिर क्यों मृगतृष्णा से व्याकुल हो,
हर पल तुम्हे खोजता हूँ |
कहाँ ढूँढू पा जाऊं तुम्हे,
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||
तुम से ही तो पूर्ण हुआ मैं
जन्मो से जो अधुरा था,
अपने प्रेम कलश के पात्र को
तुमसे ही तो भरता हूँ |
कैसे समेट लूं अपने मैं तुम्हे
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||
मेरा जीवन बेजान सा था,
सुनसान मरुभूमि जैसा,
इस वीरानी को अब तो मैं
वीणा से झंकृत करता हूँ|
हर राग मैं कैसे पाऊँ तुम्हे
मैं ये सोचता हूँ
क्यों सांसो की ......||
3 comments:
aajtak sirf suna hi tha, aj pehli baar padhi aapki koi kavita...
mast hai ekdum... :) :)
Thanks Pulkit...
sundar ati sundar
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